भारत में बैंकिंग व्यस्था का संक्षिप्त विवरण
भारत में, बैंकिंग और विनियमन के प्रमाण हमारे शास्त्रों एवं प्राचीन ग्रंथों में भी मिले थे। आर.एन.ए (Rna) या ऋण (Debt) का उल्लेख हमारे वैदिक साहित्यों में भी किया गया है।
बैंकिंग उत्पादों का उद्धरण चाणक्य के अर्थशास्त्र (300 ईसा पूर्व) में भी मिलता है।
वर्तमान समय की बैंकिंग प्रणाली की दृष्टि से, बैंकिंग की अवधारणा ‘बैंको’ (Banco) नाम के तहत इटली के लोगों द्वारा प्रस्तुत की गई है। (एसएससी सीपीओ, स्टेनो, एमटीएस, दिल्ली पुलिस, बैंकिंग, यूपीएससी) और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी।
भारतीय बैंकिंग प्रणाली विकास के चरण
भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास को तीन अलग-अलग चरणों में वर्गीकृत किया गया है:
स्वतंत्रता से पूर्व का चरण अर्थात 1947 से पहले
दूसरा चरण 1947 से 1991 तक
तीसरा चरण 1991 से अब तक
1. स्वतंत्रता से पूर्व का चरण अर्थात 1947 से पहले- प्रथम चरण
इस चरण की मुख्य विशेषता अधिक मात्रा में बैंकों की उपस्थिति (600 से अधिक) है।
भारत में बैंकिंग प्रणाली का आरंभ वर्ष 1770 में कलकत्ता (अब कोलकाता) में बैंक ऑफ हिंदुस्तान की स्थापना के साथ हुआ, जिसने वर्ष 1832 में कार्य करना समाप्त कर दिया।
इसके बाद कई बैंक स्थापित हुए लेकिन उनमें से कुछ सफल नहीं हुए जैसे-
(1) जनरल बैंक ऑफ इंडिया (1786-1791)
(2) अवध कॉमर्शियल बैंक (1881-1958) - भारत का पहला वाणिज्यिक बैंक
जबकि कुछ सफल भी हुए और अभी तक ••कार्यरत हैं, जैसे-
(1) इलाहाबाद बैंक (1865 में स्थापित)
(2) पंजाब नेशनल बैंक (1894 में स्थापित, मुख्यालय लाहौर में (उस समय))
(3) बैंक ऑफ इंडिया (1906 में स्थापित)
(4) बैंक ऑफ बड़ौदा (1908 में स्थापित)
(5) सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (1911 में स्थापित)
जबकि बैंक ऑफ बंगाल (1806 में स्थापित), बैंक ऑफ बॉम्बे (1840 में स्थापित), बैंक ऑफ मद्रास (1843 में स्थापित) जैसे कुछ अन्य बैंकों का वर्ष 1921 में एक की बैंक में विलय कर दिया गया, जिसे इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया के नाम से जाना जाता था।
इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का नाम वर्ष 1955 में परिवर्तित करके स्टेट बैंक ऑफ इंडिया कर दिया गया।
अप्रैल 1935 में, हिल्टन यंग कमिशन (1926 में स्थापित) की सिफारिश के आधार पर भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई।
इस समयावधि में, अधिकांश बैंक आकार में छोटे थे और उनमें से कई असफलता से ग्रसित थे। फलस्वरूप, इन बैंकों में जनता का विश्वास कम था और इन बैंकों का धन संग्रह भी अधिक नहीं था। इसलिए लोगों ने असंगठित क्षेत्र (साहूकार और स्थानीय बैंकरों) पर भरोसा जारी रखा।
2. दूसरा चरण 1947 से 1991 तक
इस चरण की मुख्य विशेषता बैंकों का राष्ट्रीयकरण थी।
आर्थिक योजना के दृष्टिकोण से, राष्ट्रीयकरण प्रभावी समाधान के रूप में उभर के सामने आया।
भारत में राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता:
ज्यादातर बैंकों की स्थापना बड़े उद्योगों, बड़े व्यापारिक घरानों की जरूरतों को पूरा करने के लिए हुई।
कृषि, लघु उद्योग और निर्यात जैसे क्षेत्र पीछे हो गए।
साहूकारों द्वारा आम जनता का शोषण किया जाता रहा।
इसके बाद, 1 जनवरी, 1949 को भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया।
19 जुलाई, 1969 को चौदह वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। वर्ष 1969 के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी भारत की प्रधान मंत्री थीं। ये बैंक निम्न थे-
(1) सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया
(2) बैंक ऑफ इंडिया
(3) पंजाब नेशनल बैंक
(4) बैंक ऑफ बड़ौदा
(5) यूनाइटेड कॉमर्शियल बैंक
(6) कैनरा बैंक
(7) देना बैंक
(8) यूनाइटेड बैंक
(9) सिंडिकेट बैंक
(10) इलाहाबाद बैंक
(11) इंडियन बैंक
(12) यूनियन बैंक ऑफ इंडिया
(13) बैंक ऑफ महाराष्ट्र
(14) इंडियन ओवरसीज बैंक
अप्रैल 1980 में अन्य छह वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। ये निम्न थे:
(1) आंध्रा बैंक
(2) कॉरपोरेशन बैंक
(3) न्यू बैंक ऑफ इंडिया
(4) ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स
(5) पंजाब एंड सिंध बैंक
(6) विजया बैंक
इस बीच, नरसिम्हम समिति की सिफारिश पर 2 अक्टूबर, 1975 को, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (आर.आर.बी) का गठन किया गया। आर.आर.बी के गठन के पीछे का उद्देश्य सेवा से अछूती ग्रामीण क्षेत्रों की बड़ी आबादी तक सेवा का लाभ पहुंचाना और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देना था।
विभिन्न क्षेत्रों (जैसे कृषि, आवास, विदेशी व्यापार, उद्योग) की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ शीर्ष स्तर की बैंकिंग संस्थाएं भी स्थापित की गईं-
(1) नाबार्ड (1982 में स्थापित)
(2) एक्जिम (1982 में स्थापित)
(3) एन.एच.बी (1988 में स्थापित)
(4) सिडबी (1990 में स्थापित)
राष्ट्रीयकरण का प्रभाव:
बैंकिंग प्रणाली में बेहतर दक्षता - क्योंकि जनता का विश्वास बढ़ गया था।
कृषि, सूक्ष्म एवं मध्यम उद्योग जैसे क्षेत्रों को ऋण मिलना आरंभ हो गया – इससे आर्थिक विकास में वृद्धि हुई।